याद है
तुम्हें
वो
लुहरी
जो
बचपन में
हमारे,
हिलाती थी
दुम
गली के
मोड़ पर
जब
लौटते थे
हम
स्कूल से
बस्ता उठा,
और
एक एक को
आगे आगे
घर छोड़
आती थी?
देर रात
मोहल्ले के
हर दरवाज़े
मार पंजे
करती थी
इंतज़ार
दस मिनट,
कोई डाल दे
रोटी
अगर हो
बची,
वही
लुहरी
जिसे
म्युनिसिपल वाले
एक दिन
दे गए थे
ज़हर,
हम सब
कितना रोए थे,
याद है
तुम्हें?
था उसका
एक
प्यारा सा
बच्चा भी,
जो
रोज़
रात
घुस आता था
बंद दरवाज़ों
के दरीचे से
भीतर
और मेज़ के नीचे
छुप जाता था|
आज,
शायद,
मिला,
उसी
बच्चे
के बच्चे
का बच्चा,
वो जो
था खड़ा,
गली के
मोड़ पर
हिलाता
दुम,
देख
मेरे बच्चे |
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